दोस्तों अपने भारत में निवेशकों के लिए सबसे बेहतर उद्योग नीति होने के बावजूद इसकी सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य बिहार में उद्योग की भारी कमी है. दोस्तों आपको जानकर ये हैरानी होगी की 70 से 80 के दसक बिहार में लोगो के लिए क्या कुछ नही था. जैसे की लोगो के लिए यहां पे रोजगार की बहोत सुविधा था पर दोस्तों आज बिहार की कुछ एसी हालत होती चली गई की आज यहाँ पर रोजगार का कोई भी सुबिधा नही रहा. और यहाँ के लोगो को अपने राज्य को छोड़कर दुसरे राज्य में जाना पड़ा. दोस्तों आप इस पोस्ट को ध्यान से पूरा पढ़े ताकि आप भी अपने बिहार का इतिहास जान सके.
![Bihar ka itihas](http://4uhindime.com/wp-content/uploads/2022/10/IMG_COM_20221108_0843_21_1041-scaled.jpg)
तो दोस्तों जैसा की महानगरों के मुकाबले बिहार में उतनी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं जिससे वह निवेशकों को आकर्षित कर सके. वहीं बात करें महानगरों की तो महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहां समुद्र होने के कारण यातायात सुविधा बहुत सस्ती है जिस कारण यहां निवेश बहुत अधिक होता है. इसके अलावा बिहार में वो हाईटेक सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं जो दिल्ली और महाराष्ट्र में है. साथ ही बिहार में उद्योग की कमी का एक पहलू यह भी है की बैंको और वित्तय संस्थानों का रवैया भी बिहार के प्रति ठीक नहीं है. यदि बैंकों से मदद प्राप्त हो तो बिहार 5 से 7 साल में विकसित प्रदेश में बन सकता है.
दोस्तों राज्य सरकार भले ही लाख दावे कर रही है कि लोगों को रोजगार के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है, लेकिन दोस्तों हकीकत तो इन दावों से बिल्कुल उल्टा है. यहाँ नए उद्योग व्यवसाय लगना तो दूर, पुराने उद्योगों की स्थिति ही बदहाल हो चुकी है. सरकारी योजनाओं के सहारे केवल सीमित संख्या में ही रोजगार उपलब्ध हो पा रहा है. परिणामस्वरूप प्रवासी मजदूर रोजगार के लिए चिंतित हैं. देशभर में कोरोना की दूसरी लहर के थमते ही एकबार फिर खासकर उत्तरी व पूर्वी बिहार के इलाके से लोगों का पलायन तेज हो गया है.
बात करें अगर सरकारी योजनाओं की तो मनरेगा जैसी सरकारी योजनाएं या फिर सरकारी निर्माण कार्यों में कुशल या अर्द्ध कुशल कामगारों को पर्याप्त संख्या में भी काम नहीं मिल पा रहा है.
दोस्तों आपको बता दे की बिहार में उद्योग का सुनहरा अतीत रहा है.
और जैसा की बिहार में चीनी, पेपर, जूट, सूत व सिल्क उद्योग का बेहद सुनहरा अतीत रहा है. बिहार के पहले सीएम कृष्ण सिंह के समय में बिहार भारत की दूसरी सबसे बेहतर अर्थव्यवस्था वाला राज्य था. उनके समय में बरौनी रिफाइनरी, सिंदरी व बरौनी उर्वरक कारखाना, बोकारो स्टील प्लांट, बरौनी डेयरी, भारी इंजीनियरिंग उद्योग आदि स्थापित किये गए थे. लेकिन बदलती सरकारों की कुछ गलत नीतियों और लापरवाही के कारण ये सभी उद्योग धीरे धीरे बंद हो गए. एक समय ऐसा भी था जब बिहार में सबसे ज्यादा चीनी मिल उपलब्ध थी. और भारत का 40 प्रतिशत तक चीनी उत्पादन बिहार में ही किया जाता था. दोस्तों पूरे बिहार में 28 चीनी मिले स्थापित की गई थी.
दोस्तों आपको बता दे की बिहार सरकार ने 1977 से 1985 के बीच कई चीनी मिलों की स्थापना की थी. लेकिन साल 1998 के बाद बिहार में चीनी मिलों की स्थिति बिगड़ती ही चली गई. बिहार में सबसे पहले दरभंगा की सकरी चीनी मिल अपने ख़स्ता हालातों के कारण बंद हो गई थी. साल 2005 में बिहार स्टेट शुगर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन को राज्य की सभी चीनी मिलों के पुनःनिर्माण का काम सौपा गया. कॉरपोरेशन के कहने पर इथेनॉल के उत्पादन को ध्यान में रखते हुए कई मिलों को प्राइवेट कंपनियों को सौप दिया गया.
साल 2007 से पहले किसानों द्वारा उगाए गए गन्नों के रस से इथेनॉल बनाने की अनुमति थी. लेकिन राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से दोबारा गन्नों के रस से इथेनॉल बनाने की अनुमति मांगी तो केंद्र सरकार ने राज्य सरकार की इस मांग को खारिज कर दिया. इसके बाद ये सभी चीनी मिले बंद हो गई और अंततः बिहार सरकार ने भी यह स्वीकार कर लिया की बंद पड़ी चीनी मिलों को दोबारा खड़ा करना मुश्किल है.
दोस्तों सीतामढ़ी जिले की रीगा चीनी मील का अतीत भी काफी गौरवशाली रहा है. इस मिल के कारण कई परिवारों को रोजगार प्राप्त हुए और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी थी. लेकिन अब यह चीनी मिल भी खराब हालातों का सामना करते हुए बंद होने के कगार पर है.
दरभंगा की सकरी, पूर्णिया की बनमनखी चीनी मिल, बेलही की लोहट व रैयाम चीनी मिल, सिवान की एसकेजी शुगर मिल, मुजफ्फरपुर की मोतीपुर चीनी मिल, समस्तीपुर की हसनपुर चीनी मिल आदि एक के बाद सभी मिलें बंद होती चली गईं.
दोस्तों अशोक पेपर मिल से लेकर सकरी शुगर मिल तक, कैसे बर्बाद हुए. बिहार में उद्योग
दरभंगा के अशोक पेपर मिल की शुरुआत साल 1958 में दरभंगा महाराज ने की थी. इस चीनी मिल की स्थापना के लिए किसानों से ज़मीन भी मांगी गई और बदले में उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने के वादे किये गए. लेकिन साल 1990 तक बिहार सरकार ने इस पर मालिकाना हक़ अपने हाथो में नहीं लिया.
फिर इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में लाया गया. साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट में एक ड्राफ्ट पेश करके मिल के निजीकरण की सिफ़ारिश की गयी थी, जिसे कोर्ट द्वारा सहमति दे दी गई. इसके बाद साल 1997 में मुंबई की कंपनी नुवो कैपिटल एंड फ़ाइनैंस लिमिटेड के मालिक धरम गोधा को अशोक पेपर मिल पर मालिकाना हक़ मिल गया. लेकिन तब भी यह मिल 6 महीने से अधिक नहीं चल पाई.
बिहार के सीतामढ़ी में स्थित रीगा चीनी मिल भी बंद होने के कगार पर
सीतामढ़ी जिले की रीगा चीनी मिल की हालत भी ख़स्ता हो गई. रीगा चीनी मिल के खराब हालातों के कारण किसानों के गन्नों की खेती लगभग चौपट हो गई है. इतना ही नहीं दोस्तों बल्कि किसानों का चीनी मिल पर 80 करोड़ की राशि अभी तक बकाया है.
चीनी मिलों के बंद होने से खेती पर भी असर पड़ा –
दोस्तों बिहार में चीनी मिलो के बंद होने के कारण इन इलाकों में गन्ना की खेती भी पूरी तरह से चौपट हो गई. इन मिलों की स्थापना के लिए किसानों से जमीने मांगी गई थी वो भी अब उनके हाथ से निकल गई. बिहार के किसानों को ना तो रोजगार मिल पाया और ना ही उनकी जमीन उन्हें वापस मिली.
चीनी मिलों की तरह ही कटिहार, अररिया व पूर्णिया में जूट की मिलें स्थापित की गई थीं, लेकिन ये भी धीरे-धीरे संसाधनों के अभाव और प्रशासन की लापरवाही के कारन ये भी बंद कर दी गई.
कटिहार की नेशनल जूट मैन्युफैक्चरिंग कॉरपोरेशन मिल जो की अपनी बुरी अवस्था के कारण साल 2008 में बंद कर दी गई.
बात करें अगर समस्तीपुर की तो यहां के मुक्तापुर में स्थित 125 करोड़ रुपये के टर्नओवर वाली रामेश्वर जूट मिल भी बंद हो गई. रामेश्वर जूट मिल के बंद होने के बाद इस मिल में कार्यक्रत 4200 कर्मचारी बेरोजगार हो गए. साथ ही उन मिल के बंद होने से इन किसानों को भी बहुत बड़ा आर्थिक झटका लगा जो जुट की खेती करते थे और अपने उत्पादन को इस मिल को बेचते थे. दोस्तों सरकार अगर प्रयास करती तो सीमांचल को फिर से जूट उत्पादन का बड़ा केंद्र बनाया जा सकता था.
सरकार भी लापरवाह ने बिहार को बर्बाद कर दिया –
पुराने उद्योगों के बंद होने और नए निवेशकों के बिहार के प्रति आकर्षित नहीं होने के कारणों में एक सरकार की लापरवाही भी है. बिहार में उद्योग स्थापित करने के लिए सरकार की अनुमति पाने के लिए लोगों को परेशान होना पड़ता है छोटे छोटे कामों के लिए कई सालों तक चक्कर काटने पड़ते हैं. यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा की बिहार की प्रशासन के कारण ही निवेशक बिहार में निवेश करने के लिए तैयार नहीं होते. कुछ लोगों का मानना है की जो राज्य समुद्र के किनारे हैं, वहीं बड़े उद्योग लगाए जा सकते हैं. हालांकि यह गलत नहीं की चारों ओर से जमीन से घिरा होने के वजह से बिहार को समुद्री लाभ नहीं मिल पता, लेकिन बिहार सरकार ने भी ट्रांस्पोर्टेशन सुविधा को सुलभ बनाने के लिए रेल और सड़क मार्ग की सुविधाओं का सही इस्तेमाल नहीं किया है. सडको से भी ट्रांस्पोर्टेशन किया ज सकता है.
यदि देखा जाए तो बिहार मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह के समय में भी बिहार में समुन्द्र नहीं था तब भी बिहार में उद्योग की स्थिति उस समय काफी बेहतर थी. इसके अलावा दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों को भी समुद्र का लाभ नहीं मिलता, फिर भी वहा तो लगातार उद्योग का विकास हो रहा हैं. पर बिहार में ही क्यू नही.
बिहार में निवेशकों को लाने की कोशिश –
दोस्तों सरकार ने बिहार में औद्योगिक हालात को सुधारने की दिशा में पुरजोर प्रयास किए हैं. जिसके तहत सरकार ने देश और विदेश से निवेशकों को आकर्षित करने की कोशिश की है. भारत में महामारी के दौरान सरकार ने स्किल मैपिंग जैसी व्यवस्था से कुशल तथा अकुशल मजदूरों के डाटा तैयार करने की कोशिश की ताकि उनकी पहचान करके उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर रोजगार मुहैया कराया जा सके. स्किल मैपिंग की अवधि पूरी होने के बाद कामगारों को सर्टिफिकेट दिया जाता है. इसके आलावा कई जिलों में स्वरोजगार मुहैया कराने के लिए स्टार्टअप जोन भी बनाए गए हैं. साथ ही उन कामगारों को स्वरोजगार स्थापना के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की जायेगी.
एक आधिकारिक अधिसूचना के अनुसार बिहार सरकार राज्य के 20 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराने के लिए काम कर रही है. केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना, जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना आदि के जरिए रोजगार के अवसर पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है. इसके अलावा बिहार सरकार ने केंद्र सरकार को एक पत्र लिखा है जिसमे मनरेगा के तहत मिलने वाली राशि को 300 रुपया करने के लिए कहा है. वर्त्तमान में मनरेगा के तहत मिलने वाली राशि केवल 198 रुपये है.
उद्योग में निवेश बढ़ाने की पहल –
एक आधिकारिक बयान के अनुसार राज्य में अभी तक दस हजार करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव को मंजूरी मिल चुकी है. जिसके तहत 6 हजार करोड़ से अधिक केवल इथेनॉल सेक्टर के लिए प्रस्तावित किये गए हैं. बिहार में उद्योग स्थापना को सुलभ बनाने के लिए सबसे पहले जरुरी है की इससे संबंधित लाइसेंसों और दस्तावेजों को तैयार करने में होने वाली देरी को समाप्त करने के लिए कई लाइसेंसों को ऑटो मोड में देने की व्यवस्था की है. ये लाइसेंस ऊर्जा, श्रम संसाधन, पर्यावरण व वन विभाग, खान-भूतत्व, प्रदूषण, नगर निगम व लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग द्वारा जारी किए जाते हैं.
इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा मुजफ्फरपुर में मेगा फूड पार्क स्थापित किए जाने को मंजूरी दे दी गई है. इससे किसान तथा खुदरा विक्रेताओं को एक प्लेटफार्म मिलेगा. यह मेगा फूड पार्क देश के 42 मेगा फूड पार्क में से एक होगा, जिसमें लगभग 30 औद्योगिक यूनिट्स लगाई जाएंगी. सरकार का कहना है की अगर ये इकाइयां स्थापित होती हैं तो बिहार में तीन सौ करोड़ रुपये का अतिरिक्त निवेश होने की संभावना है.
बिहार में इथेनॉल का उत्पादन शुरू करके ये उम्मीद की जा रही है कि इससे राज्य में गन्ने का उत्पादन तो बढ़ेगा ही, किसानों को भी उनकी उपज का अच्छा लाभ होगा और इसके अलावा बड़े पैमाने पर निवेशकों के आने से रोजगार की उपलब्धता भी हो सकेगी.
बिहार के मुंगेर में थी गन फैक्ट्री
दोस्तों मुंगेर का रिश्ता हथियारों के साथ पुराना रहा है. और अगर बात हम अवैध हथियार की करें या सरकारी कारखाने में बनने वाले वैध की, तो यहां दोनों तरह का हथियार बनाए जाते थे. मीर कासिम ने अंग्रेजों से लोहा लेके पहला कट्टा बनाया था. समय के साथ बहुत कुछ बदलता गया. और मुंगेर बंदूक कारखाना में लेटेस्ट फाइव शाट पंप एक्शन गन तैयार होते थे. यह बात सही है कि सरकारी कारखाने में लाइसेंसी प्रणाली की जटिलता के कारण सरकारी हथियारों की बिक्री पर असर पड़ा. बिक्री पर असर और सरकारी हथियारों की मांग कम होने पर यहां के कुशल कारीगर अवैध तरीके से हथियारों बनाने में जुट गए. यहां के कारीगर मुंगेर ही नहीं पश्चिम बंगाल, यूपी, झारखंड सहित देश के कई राज्यों में जाकर अवैध रूप से हथियार का निर्माण करते थे.
बंदूक कारखाना में 36 लोगों को लाइसेंस हथियार बनाने के लिए निर्गत हुआ था. धीरे-धीरे इसकी संख्या पहुंचकर 22 हो गई. नए आर्म्स एक्ट के तहत सिंगल वैरल गन-एसबीबीएल और डल वैरल गल-डीबीबीएल बनाया जाता था. 2016 से यहां फाइव शाट पंप एक्शन गन बनाने की स्वीकृति सरकार से मिली. पहले बंदूक फैक्ट्री में हर वर्ष 12 हजार से ज्यादा आर्म्स बनाए जाते थे, और अब यह सिमट कर दो हजार तक पहुंच गया है.
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पेहला है पूर्णिया –
दोस्तों पूर्णिया जहां किसानों की तरक्की और युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से 60 के दशक में दो करोड़ की लागत से बनमनखी चीनी मिल एशिया की सबसे बड़ी चीनी मिल खोली गई थी यह बिहार का पहला सहकारिता मिल था. 119 एकड़ में फैली इस मिल में साल 1970 में उत्पादन शुरू हुआ था,
और साल 1997 में चीनी मिल बंद हो गई गन्ना पेराई का काम पूरे प्रदेश में लगभग ठप पड़ गया सैकड़ों लोगों का रोजगार खत्म हो गया और यह हाल पूरे बिहार का था. लगभग हर चीनी मिल बंद हो चुकी. आपको बता दें कि देश के कुल चीनी उत्पादन का 40% हिस्सा बिहार में होता था, पर दोस्तों अब ये सब ख़तम हो गया.
साल 1933 से लेकर 1940 तक बिहार में लगभग 33 चीनी मिले थे इस दौर में बिहार खूब तरकी पर था. और इसी दौरान दरभंगा की सकरी चीनी मिल, रायम मिल, लोहत मिल, पूर्णिया की बनमनखी मिल, पूर्वी चंपारण समस्तीपुर की चीनी मिल सब सरकार के अंडर में आए और साल 1997 से 1998 के दौर में सरकारे इन चीनी मिलो को संभाल न सकी और एक के बाद एक मिले बंद होती चली गयी,
दूसरा है दोस्तों दरभंगा का अशोक पेपर मिल –
दोस्तों दरभंगा का अशोक पेपर मिल बिहार के दरभंगा जिले के बाहरी हिसे में 400 एकड़ की जमीन पर अशोक पेपर मिल बनाया गया इस मेल में बनने वाली पेपर पूरे देश में सबसे बेहतरीन पेपर निर्माण करता था.
सैकड़ों लोगों का दोस्तों रोजगार चलता था इस मिल से. दरभंगा के राजा ने 1958 हया घाट विधानसभा के रमेश्वर नगर में स्थापित किया था. यह दरभंगा से कुछ दूर स्थित एक क़स्बा है जो बागमती नदी के किनारे बसा है उस वक्त पुरे उतर बिहार में यही सबसे बड़ा उद्योग था.
1963 में इस कंपनी की दो यूनिट यानि पेहला दरभंगा रामेश्नगर तो दूसरा असम के जोगिहोपा में के रूप में 1970 में सरकार में इसे भी अधिक रहित कर लिया. तब बिहार सरकार असम सरकार और केंद्र सरकार के बीच एक संयुक्त उद्यम बन गया रहित कर लिया तब बिहार सरकार असम सरकार और केंद्र सरकार के बीच एक संयुक्त उद्यम बन गया. तब आईडीबीआई बैंक इसका मुख्य निवेशक था. पर 1982 आते-आते कारखाना बंद हो गया और यह काम करने वाले कामगारों और बिहार की बर्बादी शुरू हुई,
नंबर तीन पर है दोस्तों सारण –
दोस्तों सारण की फैक्ट्री वो फैक्ट्री थी जहा सुगर फैक्ट्री में प्रयोग किए जाने वाले कलपुर्जे बनाए जाते थे. यहां से बनने वाली कलपुर्जे बिहार की 4 कमिसिनियुरो में सप्लाई किए जाते थे’ तो वही यहां मरोड़ा चीनी मिल जिसकी स्थापना 1950 में हुई थी सक्कर उत्पादन में भारत में इसका दूसरा स्थान था. आजादी से कुछ वर्ष पूर्व ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन ने अपने अधीन लिया लेकिन 90 का दशक फैक्ट्री के लिए काल बन कर आया और 1990 में बंद हो गई. इसके अलावा देश का सबसे पसंदीदा चॉकलेट मोतेन चॉकलेट कंपनी भी बंद हो गया.
दोस्तों 70 के दसक शाम के 4:00 बजते ही जब मिल से छुट्टी का सायरन बजता था तो सड़कों पर चलने की जगह नहीं होती थी. इतनी चहल-पहल कि पूछो ही मत लेकिन आज वह बदहाल सड़कें बिहार की बदहाली को आइना दिखा रही है.
चौथा है दोस्तों डालमियानगर –
दोस्तों डालमियानगर लगभग 38 सालो से बंद पड़ा है. कभी यहाँ हजारो लोग काम किया करते थे. यहां दोस्तों चीनी, कागज, डालडा, वनस्पति तेल, सीमेंट, रसायन के इतना बड़ा उद्योग था जो अनगिनत मजदूरों का स्वर्ग था. 1984 में डालमियानगर समूह के नाम से मशहूर 240 एकड़ क्षेत्र में फैले रोहतास उद्योग समूह का जब चिराग बुझा तो बिहार के उद्योग जगत में अंधेरा छा गया.
दोस्तों इतने सारे प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनी और लाखो लोगो को रोजगार देने वाली कंपनी अब बंद पड़ी है. दोस्तों सरकार ने मदद करना तो दूर इसकी बदहाली का कारण जानना भी जरूरी नहीं समझा. जबकि सरकार यह बात अच्छे से जानती थी कि अगर उद्योग बंद हुआ तो बिहार से पलायन तय है. पर फिर भी सरकारों ने इस पर कोई एक्शन नहीं लिया नतीजा यह हुआ कि इस समूह के बंद होने से सीधे नौकरी की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हो गए और हजारों की संख्या में परिवारों ने बिहार से पलायन कर लिया,
पांचवा है दोस्तों डुमराव –
दोस्तों डुमराव को बिहार का टेक्सटाइल सिटी कहा जाता था और यह बक्सर जिले का नगर जहां टेक्सटाइल मिल, जूता फैक्ट्री, लालटेन फैक्ट्री, कोल्ड स्टोरेज फैक्ट्री और सिंह होरा
का सबसे बड़ा उत्पादक नगर था. यहां लगभग 20 हजार के आसपास कामदार काम करते थे. और यहाँ उत्तर प्रदेश और बंगाल के अलावा नेपाल के भी लोग काम करने आते थे,
आपको बता दे दोस्तों उस समय यह शहर खूब फल-फूल रहा था. फैक्ट्रियों में सायरन की आवाज से पूरा शहर हील जाता था यहां का निर्मित सिंह होरा की डिमांड सिर्फ बिहार ही नहीं उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी था. दोस्तों वो नब्बे के दशक जैसे बिहार की खुशियां लेने के लिए ही आया था. कहा जाता है कि इन सभी कंपनियों के बंद होने का मुख्य कारण करोड़ों की बिजली बकाया थी. कहा जाता है क्या सरकार इन बिजली बिलों का भुगतान नहीं कर सकती थी.
दोस्तों बिजली भुगतान में कटौती नहीं कर सकती थी जिसे बिहार की कंपनियां बिहार में चलती रहती और बिहार के लोग आज दर-दर ना भटकते. दूसरे राज्यों में अपमानित ना होते. अगर सभी कंपनियां बिहार में चलती तो शायद आज बिहार भी गुजरात और महाराष्ट्र की तरह संपन्न होता और जाति और धर्म के नाम पर लड़ने वाली जनता को मंत्री ने खूब छला है. दोस्तों आज भी वोट देने से पहले लोग अपने देश के भला कामो के लिए कहा सोच पाते हैं. सब अपनी जाति के नेता जी को जीत दिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं. दोस्तों इतिहास गवाह है कि धर्म और जाति के नाम पर कोई इतिहास नहीं बदल पाया है.
दोस्तों आज भी हमारे Bihar की बहोत सी येसी बाते है. जो की आज भी कितने एसे लोग होंगे जिनको ये सब बाते नही पता है.
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